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"उर्दू को ख़त्म करने की साज़िश"

         उर्दू को ख़त्म करने के लिए हुकूमत में घुसे हुए उर्दू और मुल्क के दुश्मन रोज़ नए-नए तरीके इजाद कर रहे हैं. हुकूमती दफ्तरों से तो उर्दू लगभग ख़त्म ही हो चुकी है. अगर आप गौर करें तो देखेंगे के उर्दू से अंग्रेजी को हमेशा ज्यादा अहमियत दी जाती है. यूँ तो सभी सूबाई हुकूमतें (State Goverenments) और मरकज़ी हुकूमतें (Centre Goverenments) उर्दू के साथ हमेशा सौतेला बर्ताव करती रही हैं. उर्दू को दूसरे दर्जे की जुबान सिर्फ कागज़ों में कहा जाता है जबकि अमल में हुकूमतों का कोई भी ऐसा रवैया नहीं रहा है जिसकी बुनियाद पर उर्दू दूसरे दर्जे की जुबान साबित हो सके.

         अभी तक तो सिर्फ दफ्तरों (Offices) से उर्दू को बाहर निकाला गया था अब इसे स्कूल, कॉलेज और हिंदुस्तान से बाहर करने की साज़िश रची जा रही है. अगर आप कागज़ के नोट (रुपया) को देखें तो उस नोट की रक़म आपको 17 ज़ुबानों में दिखाई देगी लेकिन उसमे उर्दू को सबसे नीचे रखा गया है. आखिर ऐसा क्यों? नोट पर जो ज़ुबाने लिखी गयी हैं क्या वे सब उर्दू से ज़्यादा चलन में हैं? सच तो ये है कि कोई भी हिन्दुस्तानी अपनी आम बोल-चाल में लगभग 70% उर्दू के अल्फाज़ का इस्तेमाल करता है कोई भी शाएरी उर्दू के बिना अधूरी है.

         अब अगर यू०पी० हुकूमत की बात की जाये तो यहाँ स्कूल में उर्दू उस्तादों की भर्ती की गयी उसमे ज़रूरी अहलियत में हाई स्कूल - इंटर या अदीब - माहिर में उर्दू का होना लाज़मी था जबकि उर्दू से बी० ए० या एम० ए० किये हुए condidates को अहमियत नहीं दी गयी जबकि सब जानते हैं कि अदीब-माहिर के इम्तेहानात का क्या हाल है? उर्दू ना जानने वाले इन इम्तेहानो को दूसरे से हल कराकर आसानी से certificate हासिल कर लेते हैं. इस तरह से जो लोग उर्दू उस्ताद के तौर पर रखे गए उनमे से ज़्यादातर तो ऐसे हैं के पढ़ाना तो दूर वो खुद उर्दू नहीं पढ़ सकते और बहुत से स्कूल में तो उर्दू के लिए उस्ताद तो है लेकिन उर्दू पढाई नहीं जाती वहां उर्दू के उस्ताद से दूसरे subjects पढवाए जाते हैं. स्कूल में अगर उर्दू का ये ही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं कि उर्दू तारीख (History) की जुबान बन कर रहे जाएगी.

         सच तो ये है कि हुकूमतें उर्दू के लिए जो कुछ भी कर रही हैं वो उनकी उर्दू से मोहब्बत ना होकर वोटो से मोहब्बत है क्योंकि उर्दू को अब हिन्दुस्तानी जुवान से मज़हबी जुवान का रंग दिया जा रहा है और उसे सिर्फ मुसलमानों से जोड़कर देखा जा रहा है जबकि सच्चाई ये है कि उर्दू हर हिन्दुस्तानी की जुबान है चाहे वो किसी भी मज़हब से ताल्लुक रखता हो. उर्दू हिंदुस्तान के दिल में बसी हुई जुबान है. अगर हुकूमतों की नियत साफ़ होती तो हिंदुस्तान में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली जुबान "उर्दू" का ये हाल नहीं होता.

        
उर्दू के फ़रोग के लिए आपसे मेरी यह गुज़ारिश है कि आप अपने क़ीमती वक़्त में से कुछ वक़्त निकालकर नीचे दिए मशवरों पर ध्यान दें:-
1) हर महीने 50 पैसे का एक पोस्ट-कार्ड अपने किसी रिश्तेदार, दोस्त या अज़ीज़ को लिखें जिसमे पता सिर्फ उर्दू में ही हो और इसे पोस्ट ऑफिस से पोस्ट कर दें. पोस्ट-कार्ड पहुंचा या नहीं इसकी जानकारी भी ज़रूर हासिल करें और ना पहुँचने पर पोस्ट-ऑफिस में शिकायत करें.

2) आपके घर के आस-पास जो स्कूल हुकूमत ने क़ायम किया है उसमे उर्दू जुबान पढाई जाती है या नहीं और अगर नहीं तो इसकी शिकायत ABSA, BSA, SDM, DM वगैरह से करें.
3) अपने बच्चो को उर्दू की तालीम जैसे भी मुमकिन हो ज़रूर दें.
4) स्कूल, कॉलेज या किसी दूसरे कागज़ी खानापूरी में अपनी मादरी जुबान (मात्र भाषा) हमेशा उर्दू ही लिखें.

नाबीरा-ए-आला हज़रत
मोहम्मद ज़ुबैर रज़ा खां क़ादरी
बरेली शरीफ यू० पी० इंडिया
11/02/2011
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